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बुका$ 900६ उ8 पहराध३/० भापं र0] [0 56 ॥880582 ०0 एणी 6 ाताताए फ्रांति0ता 55च्तंत्रा एलाप्रांप्आंणा
भारतीय वास्त-शाख्र--अन्थ चतुर्थ
प्रतिमा विज्ञान [ भ्र० चि० की हक पूजा-परमरुपरा ]
॥47048॥ [00700/067/8/7 में
छरदाताध489, छ8&0छ797%8 &0४० उ&॥र
(जरा॥॥5 8806567800१0-3भ858 ॥शाशण09 ७7 ७.४7)
लेयक-- डा० ह्विजेन्द्रनाथ शुक्ठ, एम० ए०, पी एच० डो० साहित्याचाय॑, साहित्य-रक्ष, काव्य-तीर्थ संस्कृत-विभाग लखनऊ-विश्व विद्यालय, लखनऊ
आबणी, सं5 २०१३ ] [ अग्रस्त १६५६
प्रकाशक चासतु-वाडम्मय-प्का शननन््शाला श॒क्ञ कुटी, फैजाबाद रोड लखनऊ |
_प्रथम वाए एकादश शत प्रतियाँ | मूल्य
पन्द्रह रूपिये
मुद्रक
पं० बिद्ारीलाल शुद
शुक्ता प्रिंटिंग प्रेस लखनऊ
& इप्टरेब्यें माजे दुर्गायै नम, &
०अढ ससपंण हस्१
महाशक्ति त्रिपुरसुन्दरी
ललिता के महा पीठों पर -
“भगवती दुर्गा के उदय फे पचस एवं पर सोपान--शर्व्तिः्भावना ओर' उसमें काम्भव-दर्शेन के अनुसार आनन्दर्भरव था महा- भैरव (ठिव) तथा महाईशानी था जिपुरसुन्दरी कलिता की सयुवत-सत्ता--परमसत्ता के अनुरूप व्याख्यात (दे० इस ग्रन्थ का अ० ७, पृ० १२९१-२२) सहामाहेशवर सहाकि फालिदास की निम्न स्तुति के साय-« दागर्थाविव सम्पृक्तो वागर्थप्रतिषत्तये | अगत पिठरी बन्दे पाबदीपमेर्यरी ॥
“२3० ३-१ ( मज्जञलाचरश )
+--88 ६४४७५
(४)
शक्ति-पीठ
टि० १६१ पृष्ठ पर खूचित ४७ अन्विष्ट शक्तियीठों का मान-चित्र परिशिष्ठ में न देकर यहीं पर श्रकायदिक्रम से उनकी तालिका दी जाती है| अन्य ५९१ शक्तिपीठ एवं १०८
शक्तिसीठ १० १६१--६६४ पर द्वष्टब्य हैं---
स्थान देबी १, श्रल्मोड़ा कौशिकी २. आ्रावू अबु दा ३ उज्जेन हरसिद्धि ४. श्रोंकारेश्वर सप्तमातृका ५४, कलकता काली ६ वाठमासड गुह्मेश्वरी ७. कालका कालिका ८, काशी के शक्ति निकोण
पर कमशः दुर्गा (मद्वाकाली) मद्ालक्मी तथा बागीश्वरी (मद्दासरस्वती) के कुएड मी हैं-- मम और लक्त्मी कुण्ड तो
श्रव भी हैं परन्तु वागीश्वरी का कुरड पट गया।
६, कागड़ा विद्येश्वरी १०, कोहइ पुर मदालच्मी ११, गन्धर्पल क्षीएमब्रानी योगमाया १२, गिरनार अम्बादेवी १३, गौदारी कामाख्या १४, चदगाव भवानी १५, चित्तीड कालिका या श्मशानकाली १६, चिन्तपूर्णीं शक्तिनिकोण--डिन्तपूर्णो
ज्यालामुखी तथा विद्येर१री
१७, चुनार डुर्गा १८, जनकपुर सीता १६, जब पुर बौंतठ योगिनिया ३०५ ज्वालामुखी ज्वाल मु ३२१. जालत्थर डा
२२ तिरूपती काली (दत्तिण वा महात्तेत्र)
२३. द्वारका रुविमिणी-सत्य भामा २४, देवीपाटन पटेश्वरी २५, देहली महामाया ! ( कुद॒द मीनार के पाठ ) २६ नागपुर सहखचण्डी २७, नैनीताल नयनादेवी र८, पठानकीद देवी २६, परदरपुर वष्णवी देवियाँ ३०, प्रयाग (कढ़ा) चरिडका ३१, पूना प्रार्वती ३२ पूर्णंगिरि कालिका १३३, फरुखाग्राद ( तिस्वा ) भद्दात्रिपुरसुन्द्री ३४; बाँदा महेर्वरीदेवी ३ भुवनेशार १०८ योधिनियाँ ३६. मथुरा महा विद्या ३७, गदुरा मीनाक्षी शेष, मद्रास कुड़िकामाता ३६, मदोया देवियां ४० बम्बई कालबादेदी महालद्मी मुम्पादेगी ४१. मंयूर चामुण्डा ४२ मेहर शारदा ४३, विन्प्याचल विन्ध्यवासिनी ४४ शिमला कोदीकी देवी ४५. थ॑ रेल बद्यारांवा डब, साभर माताजी ४७, इरिद्वार चण्डी
'डि० उत्नाव जिला में बीघापुर_ के मिकद बसतर में सागीरथी कूल पर चपणिदवा के माम से एक यहा ही प्रशस्त पीठ है जो धुर्गाहिप्दसती ( दे० १३ वां श० ) का 'मदीपुलिन- संश्यितः चणिहका भ्रम्थित्रा का 'महाद्रीठः मना चाहिये ।
नी
(४)
संहायक-अन्य क्षा अध्ययन-म्रन्ध १, समराद्गरण-सूत्रधार २, अपराजित-पच्चा थे अन्य सहाखक:भअन्ध ( पृव॑-पीठिका ) अ() बैदिक वाद्भव-- संहिता, आद्षण, आरणवक, उपनिपद् एवं सूत्रअन्प | (॥3 ) स्मृतियों, पुराणों, आगमों एवं तन््तों फ्रे साथ-साथ भह्यमारत, कौटिल्य--श्रर्थ- शाखसत्र, शुक--नी तिसार के श्रतिरिक्त वारादी वृहइत्सेहिता, प/ण्िनि--अष्टध्यायी, पतञ्चलि--मद्दाभाष्य एवं योग यूज झ्ादि के साथ-साथ कालिदास, भवभूति, कृष्ण मिश्र श्रादि फे काव्य एवं नाटक-अन्य (0) सार्शल, सके, च्यन्दा, के एन० शार्ररी, कुमारस्वामी श्रादि प्रख्यात धुरातत्वा न्वेपफों वी छृतियों फे साथ-साथ डा० कान्तिचन्द्र पाणडेय की छाापणोः छड़ी ०, [ ( 55 0प06॥00 0 8क्ष एक शिातरी050ए॥9 )) श्राचार्य बलदेद उपाष्याय के श्रार्य-संस्क्ृति के मूलाधार ( यज़यान-तन्त्र ) के अ्रतिरिक्त निम्न प्रन्प विशेषोल्लेख्य ं;-- 3... 97, 7[890--ं्री8६079 04 0987077-5699878 ४०), ॥] (8, 9. य् 2, 3पएापवे६चरए7--पएकांझ00ए789, पिद्वेरंछ्या. छापे... शराठः एणाहु०प७ 899६0७॥08--विशेष उल्लेख्य है |
( उत्तरपीठिक्ता )
(॥ ) शिल्पशास्त्रीय प्रन््थों में समरा्रण एवं श्रपराजित-एच्छः के अतिरिक्त मानसार, मथमत, अयस्त्सकलाबिस्चर, काश्यप-अंशुमदुमेद, विशवकर्म-प्रवाश, रूपमण्डन, रिल्परतन आदि ग्रस्थ फे साथ ठफुस्फेरू का घास्पुसार (ध्वनुवाद-मन््थ)
(| ) प्रतिष्ायस्ध--४ रिसति-विलास (मानसोल्जाग), देमादि-चत॒र्यर्ग बितामणि श्रादि के अतिरिक्त निम्मलिलित प्रंथ गिशेष संदीप ई :--
१.७ 4, 8, 00णए[एकणा ि६०--ड०गराला(ढ 6 संंचरतच्त [0090- हाशाव9 9 णयते वा 72९७ (६ एछाणप्र७१).
२.० 3. 0, 99%00॥8797--ं 7089 ]798 8९५.
३८७ -, ै, त्न0ए07]०ए--7७ए९०ठकृण्ाए३६ ० सीफवेप [९०0 &8४0]0% ( ४780 ४600४)
४, वि्ताठएतबो छ्चषा चिष्फैयाएच- एवेंघत..... उफवेतेधां॥६ [2000[7४]॥5.
१,७ 3. 0, छाककलीफर॒8--ते कराए 0070/79७॥5५
६, 80णी58 इराएफर्घेश्ट--ंडप्प्वेध्दाफाता (व चघ,
७, द्िलेखनाथ शुकऊ मारतीय बाछु-यम्य--धरतु-वि एवं पुरनिवेश
& वास्तु-शास्त्रीय अनुसन्धान
(६ पश्च उष्यिद्या-माला 3
३. मारतीय ब्ास्वुचात्त्र अन्य प्रथम--वास्वु-विदा एवं पुर-न्विश
र्.
हक ». दिवीए- मतन-वास्तु सठए8७ 3769९७६व९ & एऐड808 8700६९०प५४७ न ० ४. ठेंतीय--शम्राद-वास्ठु पुएफए0--+7०६९०:7७ गत पर ७. चतुर्थ-प्रतिमा-विज्ञान डः कर ह.. पिसम अर, चित्रफ्ला बे. यत्नयता
स्, बास्तु कोप (8)08चाउए)
दि०--दइनमें प्रघम तथा चतुर्थ प्रकाशित हो चुके हैँ ।श्रव द्वितीय और पंचम
प्रकारय ई तद॒न्तर तृतीय श्रंग्रेजी में ] [जप 5णछ0706 06 870९० के नाम से ग्न्ध तेंयार दे जो शत हो प्रचरित होगा।
विपय-तालिका प्रारम्भिक
( १ से १६ पृष्ठ तक ) सुद्य-छष्ट (१), प्रकाशन, मूल्य एवं मुद्रण (२), समपंण (३), शक्ति... घ पीठ (४), सदायक-मन्य (३), प्रा रू-ऊथन (६ ८), अनुसन्धान प्रन्य (८) विपय तालिका ( ६-१६ तथा १६ श्र ) १थ घ्यानी बुद्ध-तालिका ( १६ 4 )
पूर्व पीठिका प्रतिमा-विज्ञान की प्रुप्न-भूमि पूजा-परसरूपरा
(१७ मे १६६ प्रष्ठ तक ) अध्याय
१. विपयप्रवेश--भारतीय प्रतिमा-विजान का मूलाघार है मारतीय पूछा- परम्पणा तदनुरूप इस परम्परा के अ्रध्ययन में इस दशाघ्यायी पूर्॑-पीठिका की अवतारसा | ६-२२ २. पूजा-परम्परा--शस्क्ृतिक दृष्टिकोश के आधार पर--देव यश, देव- २३ ३२ पूजा, पूजा का श्र; भारतीय ईश्बरोपासना में प्रतिमा-पूजा का स्थान; पूजा के प्रतीक--बृक्त पूजा, नदी-पूजा, पदव॑त्त-पूज्ञा, घेनु-पूजा (पशु- यूज), पत्ति-पूजञा, यंत्र-पूजा; सास्क् तिक दृष्टिकोण से पूजा-परस्परा की प्राचीनता एवं उसके विभिन्न खरूप--शार्यों एवं भ्रनायों की पथक-एथक सम्ानान्तर पूजा-संस्थायें--समन्वयास्मक सास्कृतिक सत्य की मीमाता ३ प्रतिमा-पुजा की प्राचीनता-जन्म एवं विकास--प्राचीन साहित्य का विदंगावलोकबन श्रूर+ साहित्यिक प्रान्ाएय--पूर्वजैदिक-फाल-- ऋग्वेद; उत्तरजैदिककाल-- यजु्वेंद, आ्राक्षय, श्राएएयक, उपनिपद्, वेद/क्ल--सूउ-साहित्य; स्मार्त॑- सहित्य; प्राचीन व्यावरण-साहित्य--पाणिनि और एतप्नलि; अरपशास्त तथा रामायण एवं महाभारत ४. प्रतिम्ता-पूज्ा की प्राचीनता-विकास एवं श्रमार--पुरातल्, स्पपत्य ढता, थ्रमिलेण, तिफों एवं मुद्रान्रों के आधार पर इद-६७ पुरातत्यात्मक प्रामाएय--रयापत्य एवं कला, पूतिशम्िक बाल, वैदिकजालखूर्ययतिमारये ; ऐतिदामि्काल के प्राचीन निदर्शन; शिज्षा- क्षेप्र - पोषायदी, वेखनगर, मोरयेल इम्स्किप्सन; सिफ्ले (0०॥४)-- रागज एपं झगम लक्ष्मी, शितर, वागुदेव ( विधूषु ), दुर्गा, यूदे, सन्द, कार्विकेप, इन्द्र तथा अग्नि, यक््-यद्षिणी, नागन्नागिनो, मुद्गाय (86०े०७--मेद्वेन्जदाड़ी दया हृएपा-पणुपति गिल, नाग, प्रमय
€ ९०)
तथा गण, गदड़, गस्धप्, किन्नर, कुम्माणड, गौरी ( हुगा पाती ), ' शप इृक्षयूज़ा त्तया दक्ष देवतानूजा, घसरा--विष्णु, लक्ष्मी, भीटा--
शिव, डुर्गा, विष्णु, भरी ( लक्ठमी ), चूये, स्कन्द; राजघाट /» अर्चा, अन्य एवं अर्च॑क--वैध्णव-धमे
अ--उपोद्घात--श्र्चा के प्रिमिन्न सोपानो में मक्ति का उदय
घ-पचायतन-परम्परा
स--वैष्णव-घर्म > 528 ( ) वैदिक-विंष्णु ( विष्णुन्वासुदेव) (4, ) नासयण--बासुदेव (७) बासुरेव-उृष्ए ((9) विष्णु ऋवतार (९ ) वेष्णयचार्य-द्चिणी (श्र) आ्रलवार (व) आ्राचाय॑
हद ६० ६८-७२ ७२-७२ छरे-६० ७२-७७ ७७-७६ छह्न्दण प्प०
६५ ८र
सरोयोगिनादि परकालान्त ११श्ालवार तथा गमानुज, माघव आदि आचार्य
चैध्ण॒वाचार्य--उत्तरी
चर ८
निम्पार्क, रामानत्द, क्वीर, श्रत्य रमान-दी, दादू , तुलतदास, चैतन्य, पल्लभ,
» राधोपासना 2मरादा देश के वैष्शवाचा्य--नामदेव और ठुक्ाराम उपसंद्ार ६, अर्चा, अरच्झ एवं अचंक--शैव धर्म
हपोदूघात--द्व|दश ज्योतिर्लिद्ठादि
रुद्र-शिव की वेदिक-पृ8-भूमि
रुद्र शिव की उत्तर बैंदिक-कालीन प्ृष्ठ-भुमि
लिब्लोपासना
४ “शैबन्सम्पदायों का आविर्माप--
तामिली शैव, शैवाचार्ष, शैपदीक्षा , पाशुपत-सस्प्रदाय
कापएकि एवं फतामुख लिद्वायत ( पीररशेप ) फश्मीर का त्रिक्चू-प्रधसमिज्ञा सम्प्रदाय एवं दर्शन
जीव-दर्शन की आठ शाप्ययें
७, अर्चा अर्च्य पृव॑ सर्चक्र-शाक्त; गाणप य एवं सौर धर्म
खाक धर्स प्व॑ सम्प्रराय सन्त, भागयम डॉब-सस्प्दाय शाफ़ तन शाफ़्दस्य--वान्तरिक भाव तथा द्ाचार--पौल, यौल-सम्यदाय, कुलाचार, समयाचार, शाक्ततन्त्र फी ध्यापक्ता, शाक्ब्तस्त, की बैंदिक- पृषरभूमि, श'फ़तन्त्ं की परमण, शातों फा अर्च, शाफ्ी वी देवो के
छ७ 3 पा ० ६१-११२ ६०-६५ ६३६७ ध्ज्ध्फ ६ए-१०० ११०-१०२ २०२-१०४ १०५४-१०६ १०६०१५०६ १०६-११० २६०-११२ श्र ररे-१२१ १३२-१ २३ ११३ ११४
१०,
(११)
उदय का ऐदिद्ाासिक विदंग|वलोकन--मगवती हुर्गा के उदय की पाँच. प्रृ्ठ परुमसयें; शाक्तों की देवी का विराट खरूप-महदालद्टमी की तीनों
शक्तियों से आविमंत देव एवं' देवियाँ; देवी-पूंजां ११४०१ २३ गाणपत्य-सम्पधदाय--एतिदासिक समीक्षा--गणपति, विनायकर,
विष्लेश्वर, गणेश आदि; सम्प्रराय-8 मद्ागएपति-पूजक सम्परदाय, २-दरिद्रा ग०, ३--उच्छिए्ट ग० ४-६ 'नपनीतः 'स्वर्ण) प्सन्तानः श्रादि १९३:१२७ सूरे पृजा --सौर-सम्प्रदाय--7रम्परा, सौर-सम्प्रदाय के विशुद्ध देशी
स्वरूप की ६ श्रेणियाँ; यूर्तोपासना पर विदेशी प्रभाव १२७-१३१
« 'अचा, अच्य एवं अचक-बा।द्ध धम एवं जन घम श३२-१४०
बौद्ध धर्म--बुड्ध पुजा--बौद्ध धर्म के विभिन्न संप्रदाय तथा उसमें मंतयान ,
एवं बजद्भयान का उदय, बज़यान का उदय-स्थाम, बद्रयान-पूचा,परम्परा,
बज््यान फे देवगृन्द का उदय-इतिद्वास, वद्रयान के चार प्रधान पीठ. १३२-१३८ डैन-धर्म--जिन-पञ्ञा--शचोगता, तीये डर, यति एवं श्रवक, उपचारात्मक पूजा-प्रणाली श्रोर मन्दिर-प्रतिष्ठा, जैनियों पर शाक्तो का प्रभाव, जैननीर्थ १३८-१४० अर्था-पद्धति--देव-पूजा देवयश से प्रावुर्भूत, शास्त्रीय प्रमाण, भ्र्चापद्धति
के सामूद्दिक रूप के तिकात में श्र्चाण्दीं की प्रतिष्ठा, येयक्तिक-पूजा में
उपचारों की परग्परा, अ्रधिकारि-भेद; विष्यु-पृत्रा-पद्धति, शिव-पूजा-
पद्धति, दुर्गो-पृजा, सूर्य-पूज्ञा, गणे श-पृच्रा, नवप्रद-पूणा, पूजोपचार, पोडशोपचार, . उपचार संख्या, उपचार-सामग्री; बौद्ध तथा जेन अचापदति १४१-१५३ अर्चा-पृद्द-प्रतिमा-पूजा का स्थापत्य पर प्रभाव १५४४-१६६ पीौराशिक-तीर्थ--देवालय निर्माण परम्परा की दो घाराष्रों में तीयों एवं
धार्मिक पीठों की देवाचों, श्र्वाएइ-निर्माण में पौराणिक-धर्म की श्रपृर्त-
ध्यवस्था, प्रासाद-निर्माण की परम्परा का प्रादुर्माव एवं प्रासाद से
तात्पय; पुराणों एवं श्रागप्तों के तीप, पएड, घाम, आवते, भ्ठ आ्रादि,
की प्रतिष्ठा में देवविशेष का नाम; तम्त्र-्चूढ्ाामणि के ५२ तथा देवी:
भागवत के १०८ शक्तित्पीठ ११४-१६४ स्थापत्यात्मझ-मन्दिए (एवं चेष्य, विद्वर श्रादि मी) -() बंह्मण (॥)
बौद्ध तथा (तर) जैन, ()) बराक्षण-मन्दिरों के ग्राठ मरइल (97608)
१. उड़ीसा, २, घुम्देलसण्ड, ३. मध्यमास्त, ४, गुजरात राजस्थान,
५, तामिलनाद, ६. कारमीर ७, नेपाल तथा ८, यंगाल-विद्वार रह्रन््६८ () बौद-प्र्चा-यदइ--साशी, घजन््ता, ओरडाबाद-इलौग श्र (॥॥॥) जैन-मन्दिर--धावू परत के मन्दिर नगर, काठियायोड़ को पहाड़िया
झादिनाथ या चौमुची, मेदूग, मधुरा, जूनागढ़, गिरनार, इलौरा« गुह्न्मन्दिशशादि हु
२६६ “भारत फे गुदामन्दिर
रद
( १२ )
उत्तर-पीढिका प्रतिमा - विज्ञान ध्ठ स्त्रीय-छिद्धान्द "३२० १. विपयअबेश 000 / ४० कई
२. प्रतिमा-निर्माण-परम्परा- एक विहंगम-दृष्टि शास््रीय एवं स्थापत्यात्मक १७७-१६२ शास्त्रीय--पुराण, आगम तन्त्र, शिल्प शास्त्र, प्रतिष्ठा-मन्थ; पुराणों में मत्स्य, अग्नि, विष्णु-घर्मोत्तर; आगमों एवं पुराणों की विधय-तुलना; शिल्प शास्त्रों में दक्षिणी अन्य मानसार, अगस्त्य, सकलाधिकार, काश्यपीय श्रैशुमद्भेद; उत्तरी ग्रन्थों मे विश्वकर्म-प्रकाश तथा श्रपराजित-पच्छा १७७-१६०
स्थापत्यात्मक श्ध्श्न्श्ध्र ३. प्रतिमा-बर्गी ऋरण १६३-१६८ अ-प्रतिमाकेन्द्रानुरूपी-वर्गी करण शहर ब- धर्मातुरूपी-वर्गोक्रण प्र -. स-पधर्म-सम्प्रदायानुरूपी-वर्गो करण श्ह्ड य--राव महाशय का वर्गीकरण--चलाचल, पूर्यापू्ं, शान्ताशान्त १६४-१६७ श्रचला के स्थानकासनशयन-प्रमेद से १२ भेद की इस अन्ध का वर्गी करण--धर्म-देव-द्वव्य-शाख्तर-शली-अमुरूप १६७-१६८ 9. प्रतिमा-द्रव्य ([0070ए9]7800 70) १६६-२१६ स० सू० के प्रतिमाद्वव्य, पुराणों के प्रतिमा-द्रव्य, शुक्र के प्रतिमा-द्वव्य, गोपालभट्ट को चत॒र्विधा, आगमों फी पड्विधा श्रादि १६६-२० ३ दारू-काप, सत्तिका, शिला-पापाण, घातु (7०8७), रत्न, चित्र. २० ३-२१६ 2. प्रसिमा-विधान--मानयोजना--शअद्भोपाज्ञ एवं गुण-दोप २१७-२२६
उपोद्घात--प्रत्येक वास्तु-कृति मेय; देव-प्रतिमा में मानाघार अनिवाय॑; मूर्ति निर्माता की निष्ठा; मान का अवलम्ब-औबहिरद्न एवं श्रन्तरज्ञ;
शात्त्र-मान ही सुन्दरता की कसौटी २१७-२१६ अ--घबराइमिद्दिर के हंसादि पश्मपुरुष २१६-२२० स-समराज्षणय के इंतादि पश्चपुरुष एवं बलाकादि पद्चत्री स--विभिन्न मानयोजनायें २२०-२२१ य--वालमान २२१-२२३ र--समरा इणीय प्रतिमा-मान ( अ्रज्ञोपाड़् ) २२३-२२५ ज्ञ-प्रतिमा गुण-दोप--२० दोप--१५ गुण [ २२५-२२६
६, प्रतिमा-रूप-सयोग--श्रासन, वाइन, आायुध, श्राभूषण एवं वस्त्र २२० २४८ अपोदधात--रूपसंयोग भी मुद्र। हैं; आस्न--आसन की चतुर्विघा श्रमिधा, यौगिकासन एवं प्रतिमासन--पद्मासन, बीरासन, श्रालीदासन, प्रध्यालीदासन, कूर्मायन, छिंदासन, पर्य्भासन, श्रर्धपर्यक्धासन, लि पर्य्ञामन, यद्धपड्माधन, वहरउन तथा उत्फुटिकसन; शयनासन, धलिमा- पीठ, आसन एवं घाइम | २४३ र
ष,
( १३ )
आयुधादि--अ्रायुध, पात्र, बाद यन््त, पशु श्रौर पछ्ी छ शंप्-चक्रादि २५ आयुर्धों की तालिर( एवं कतिपय के लक्षण; १२ पात्र, ७ वाय-यत्त २३/४-२३१५
आभूषण तथा वस्त्र-देशखालानुरूप ब्यवत्था एवं भूषा सृध्य के अ्रनुरूप ; भूषा-विन्यास॒ के तीन बर्ग--परिधात, अलंकार एवं शिरोभूण, (अर) परिघान--द्वरादि १५४ परि० (व) अलझ्षर-घाभूपण में कुरडलादि ५ कर्णामूपण, पेतरादि नासाभूपण, निष्कादि ५ गलभूषण, श्रीवत्तादि बच आमृषण, कटि-आभूपण, कंकणादि वाहु एवं भुजा के भूषण; (स) शिरोभूषण के द्वादश प्रभेद एवं मामसारीय-तालिका की आलोचना | कि २३५-२३८ प्रतिमा-मुद्रा-हस्त-मुद्रा, सुख-मुद्रा, पाद-मुद्रा एवं शरीरूमुद्रा र३६-२४४ उपोदूघाव-मुद्रा का श्र्थ एवं उसका विस्तार, आह्मण प्रतिमा्रों में मुद्रा- विनियोग की स्वह्पता; रूपसंयोग मुद्राये' ही हँ--तन्ततारीय विभिन्न देवमुद्रा, समराड् णीय मुद्रा-विशिष्टता, पोहुबल का मुद्रायर्गी करए-- २३६-२४१
अ ६४ हस्तमुद्राये--२४ श्रसंयुत, १३ संयुत २१ दुत्य- श्चश् थे पादनुद्रा पटक््मू--वैष्णयादि २४३-१४४ स॒रारीर मुद्रा ( ऋज्वागतादि € चेथ्थायें ) रृषध४-२४५ प्रतिमा-लक्षण--ब्राह्मण २४६-२६३ २ त्रिमूर्ति शलण २४६ ३ आहा-पतिमा-क्षक्षण एवं स्थापत्य;निदर्शन २४७-४६ वेष्णव-प्रतिमा लक्षण रधब्न्ध& वैष्णपअतिमाओं के ७ वर्ग २४० १ साधारण मूर्तिया ऊँ २ विशिष्ट मूर्तिया 2 (ञ्र) श्रनन्तशायी नारायण रप्ए-पर (ब) वासुदेव २५४२-१३ ३ वेष्णव-बुव वेर--योगस्थानकादि १३ मूर्तिया रश७-भ५ ४ वैष्णब-दशावतार--वराह, त्रिविक्रम, इष्ण, बुद्ध, बलराम (उमराद्वणीव वेशिव्व्य) 7 २५१४-४७ ५ चहर्वि'शदि-मुर्तियां धर २५७८ ६ अ्रैशावतार एवं श्रन्य स्परूपनमूर्तियाँ कक ७ गांड एवं आयुध-पीदपी यैष्णव-मूर्तियां २४६ शेवअत्तिमा-लक्षण २५४६-७६ रूप प्रतिमा एवं लिद्न मतिमा २५४६-६० * रूप-प्रतिमा ( २१६०-७३ समराफ्ट्रणीय एवं श्रन्य पौराणिक-प्रमेद २१६०-६२
आंगमिक सप्त प्रभेद-- १६२
(९१४)
] हि प्र्ठ्ठ १ संदार मूर्तियां रद १ कामान्तक मूर्ति ऊ २ गजासुर-पंदास-मूर्ति ऊ ३ बालारि-मूर्ति क्र ४ त्रिपुरान्तक-मूर्ति $ ४ शरमेश मूर्ति रर४ ६ बहाशिरश्लेदक-मूर्ति 9 ७ मैरव-मूर्विया ] । (म) मेरब (सामान्य) २६५ पे (ब) बढ़क-भरव । /. (स) स्वर्णाकर्षण-मैरव गन (ये) चततुष्पष्टि मैरव-तालिका 7 ८; वीरमद्र-मूर्ति रष्८ ६ जलन्धर इर-मूर्ति ३० अ्रन्धकासुर वध-मूर्ति ११ ३११ अधोर-मूर्ति--सामान्य, दशभुज ३६७ दि० मल्लारि शिव तथा भद्दाकाल-मद्दाकाली 9 अलुप्रह-मूतिियों २६७ ६८ १ विष्एवनुप्रद मुर्ति २६७ २ नन्दीशानुमद 9 ३ किराताजुन. » ऊ ४ किल्तेश्वराठु० ,, क् ५ रावणानुप्रद $ | ६ घरणदेशालुप्रद ,, छ 'चैत्त-मू्ियां रद८ ३ कटिसम-नृत्य छः २ ललित-छत्य छू ३ छलाद तिलकम् ] ४ चतुरम् छ् समीक्षा २६६ दत्षिया-मूर्तिया २६६-७० ३ व्याख्यान दढिया ३ »रै शान है] | ३ योग ] | ४ पीणाघर. 9
कंकाक्ष मित्ताटन-मूर्दियां ३७०
( १४)
६, विशिष्ट-मूर्तियां न् आ--पौराशिक ३. गगाघए-मूति (| » + २ श्रवारीखर है ६ कल्याश्रसुरर मूर्ति रद
४, इयध मूर्ति या हरिहर मूर्ति
५. पृषभ वाहन-मूति
६, विपापहरण
७, दस्गौरी-उसामहेथर
प्र मिटा
६, चन्रशेतर--उमासद्वित तथा आ्रालिड्न मूर्तिया १०, पशुपति-मूर्ति, रीह्-पशुपति-मूत्ति ११, सुसासन मूर्ति--केयल, उमासहिंद एवं सोमास्कन्द
ब-दाशेनिक रत अपर/जित फे द्वादशकला तम्दूर्ण-सदाशिव एवं आगमों के सदाशिव एव "मदासदाशिव--दाशनिक समीक्षा, विद्येश्वर-मृर्तिया एवं श्रष्टमूर्तिया न् एकराद्शरूप २७३ ७. लिट्ठ मूतियां
लिंड्न-लत्तणु - समराज़णौय मानसारीय प्रमेद, लिड्नजभाण, लिड् माग, क्ि्न पीठ , चल्ष लिज्ञ-- २०५-२७६ (3) मण्मय, (गा) लोइज, (प) रक्षण, (ए) दारज, (९॥) शेलज़,
(श))) ज्षणिक
लिब्वार्चायल २७६ अचल लिड्गन --विभिन्न वर्गीकरण है ३. स्वायम्भुब--६६ लिंग २३६-२७७ ३ २, देविक लिझ् हि ३-४, गाणप एवं श्राप हु १, मानुप--उनके प्रमेद--सावदेशिकादि २७७-२०८
वीउप्यमेद' एवं जि्किलिवए
गाणपत्य प्रतिमा-लक्षण--समराज्णण का मौन
अ-गणपति गणेश विध्तरानादि १शप्रतिमाये (इन्दावन); चालगणपति श्रादिश्रूप (राव), स्थापत्य निदशेन शं८००८६
ब--प्ेन्रापति कातिकेय श्दर कार्विकेय के पौगशिऋ १० रूप तथा श्रागमिक २२ रूपे २८१
सौर-अतिमा-शक्षए-दादश थादिस्यों की सलाबडना तालिका, सौसरतिया
लदस एवं चासुदेव यूर्वरेव का साग्य," सौर प्रतिमा की दो स्पोक्तबगायें एवं स्थापत्य-निदशेन
र्ण्प
श्
२८२-२८५
(१६ )
नव-मह--६ प्रहों की सलाइछना तालिका एवं उनका श्राधिदेवत्व एवं घ्र्घ
उनकी अनिवाये पूजा-सँस््था, सौर प्रतिमाओं के स्थापत्य-निदशन र८४-२८६
झआष्टदिग्पाल र८६-२८७
अश्विनौ रस्म प अधे-देव ( या कुद्र-देव ) और दानव--छुद्ग देवों के एकादश भेद---
बमु, नाग, साध्य, श्रसुर, अप्धरा, पिशाच, वेताल, पितृ, ऋषि, गन्धर्व
एबं मदद--इनके विभिन प्रभेद रणफनश्द८
देवी प्रतिमा लक्षण-सरस्वती, लद्धभी, दुर्गा ( कौशिड़ी), नवदुर्गा,
दुर्गा की नाना मूर्तियों में ५६ रूप, सप्तमातृकायें, *श्रपण जिता-एच्छा?
की गौरी की द्वादश-मूर्तिया एवं प॑श्चलललीया-मूतिया, मन्तसारेवी तथा
६४ योगनिया एवं देवी प्रतिमाश्रों के स्थापत्य-निदरन रषप-र६३ ६, बौद्ध प्रतिमा लक्षण--बौदध प्रतिमा में प्रतीक-लक्षण, बुद्ध प्रतिमा, बौद्ध-पतिमा के स्थापत्य-केन्द्र श६४ २६५ बौद्ध, प्रतिमाश्रों के द्वादशवर्ग २६४५-६६ १, दिव्य बुद्ध ( ध्यानी-उद ) देविक बुद्ध शक्तिया और बोधिहत्व, मानुष बुद्ध, गौतम बुद्ध, मानुप बु० श० एे बोधिसत्व र६६ ६६ ३, मंजुभी एवं उसके झाविर्भाव > ३००-३०२५ ३, बोघिसत्व भ्रवल्लोकितेश्बर के आविर्भाव ३०२-३०४ ४. अ्रभिताभ से झाविर्भेत देव श्ग्ड ४. अ्रक्षोभ्य कक इ०्४ ३०५ ६. अन्नोम्य » | #.ऐैवियाँ ३०६ ७, +रोचन से आविभूत देव एवं,देविया ३०६०३०७० ८ अमोपसिद्धि ,, नि ३०७ ६ रक् सम्मव न” कक झ्ण्प १०, पश्म्यानीबुदों ,,. » ( श्र्थात् समष्टि ) श्
११. घतुध्यानीबुद्धों ,, १२, बम्रंसत्व के आविमांब पद्चाक्षुर-मयडलीय देवता--मदाप्रति
कि
सरादि, सात तारायें अन्य स्वत॑त्न देव एवं देवियाँ ३०६-१११
उपसंदार ३११ परिशिष्ट--अ्रवलोक्तिश्वर के १०८ रूप इ११-११२
१०, जैन प्रतिमा लक्षण्य श्श्श्नश्८
सैन प्रतिमाओों का आप्रिमाय, जैन प्रतिमाशों था की विशेषतायें अ, थ, स--२४तीय॑इग्-्तालिका, २४ यत्तन्यद्णियों की सलाब्झना तालिका, १० दिग्पाल, ६ नवप्रदद, क्षेतपाल, १६ भुत देविया या विद्या देविया दि० १, भ्री ( लद्तमी ), सरस्वती, गणेरा, दि० २, ६४ योगमिनिया, स्थापत्य में जैन प्रतिमाश्रों के निदशा | « उपराद्ार कल ड् पे हा प्रतिमा निर्माण में रस दृष्टि श--प्रतिमा एवं प्रसाद
३१६-२०
(१६ श)
ह श्छ
( परिशष्ट, श्र, ब, उ ) ३३११-२२ परिशिष्ठ ञ रैपा-चित्र--शहतित्यस्त-निक श्र्रे परिशिष्ट बप्रतिमायास्वड्रोप श्र
है
परिशिष्ट सर सक्तिप्त समयड्रण (अपपजित मी) ३२५ ३४२ प्रतिमा विज्ञानसू
अ, प्रतिमा द्रव्याणि तद्युक्ता. फ्लमेदाश्च घर
बे, प्रतिमा निर्माशोपक्रम-विधिः
स्तर, मानगणनम््
ये. प्रतिमा निमणि मानाधाराणा पश्म पुस्पन्परीलक्षणम्
२. प्रतिमा दोणः श्र्श्नद्
ले, प्रतिमा-मुद्रः (0) इस्त मुद्रा-नतुशिशति-शर्सयुत-दष्ता , ३१२६-२८ त्रयोदश-स्युत हस्ता$, श्रशविशनिश्च नृत्त दस्ता' , (0) पाद मुद्र। -पेष्णयादिपद्श्थानक-मुद्रा: , (४) ऋष्यागतादि ६ शरीर-मुद्राः * क रूप-सयोगे - श्रायुधादपणलवणनि व “श्रपााजितएृच्छाव:, समुद्धृतानि वानि त्वपस्तदबलीकनीयानि ] ई?
प्रतिमा क्षक्षणम्
आद्यण प्रति शछ्तएम् नी ३२८६-३३ १, अन्ना ७ श्र! ३ विष्णु: <.. भी (लद्मी) ३. बलभद्रः ६. औरिकी (हुर्गा) ४. शिक १० लिइ-कक्तणम-(7)लिप्रद्धव्य-गमेदा३, (0) किज्ञा- ५, कार्तियिय: मृत्ि", (॥॥) लिड्न्मेदा। (९) लेजपाल-लिड्ठा, ६, लोकपाला: (४) लित्न-मिमांण दरब्प-मेदेन ले,
११. गठेत भूत पिशाच-नाग यत्ना>पव॑-रित्नर दैयादय:
दीद्ध प्रतिमा-प्तणम्ू-पद प्यानी-दुद-खाज्थन-तालिका माप १६ (४)
हीन प्रतिमा-छक्तत म हे हा 0) चर्दर्षिश्ति हक रे (ऐ) » कफ शवर्पादि शामनदे दिका; [परदिष्फः | (पा) हर जृपरपत्रारियदा। ) १३२३-३४ के (भर) प्रियलारि पदूविशदायुधकत्तज॒म् के द १७
(थ) दाणदिषोदशाभूषणउछ्णम् ह ६-४२
( है वे )
+ किम + > 3४ ०६ आ2। 8 2292 020७ &0 ०६-३४ ४४५४ ४ ०३६ ०७ ७३३० 3४- ०
पू्व-पीठिका
पुजा-परम्परा
[ प्रतिमा-विज्ञान की पृष्ठ -भूमि ]
१
विपय-प्रवेश
आकू-कथन! में प्रतिमा विशन के श्रध्ययन के दृष्टिकोण पर कुछ संकेत किया जा। चुका दै। वास्तव में भारतीय प्रतिमा विशान को पूर्णरूप से समझने के लिये इस देश की घामिक भावना एवं तदनुरूप धार्मिक संस्थाओं, सम्प्रदायों, परम्पगओ्ों एवं श्रन्यान्य विमिन्न उपचेतनाओं को समझना आवश्यक ही नहीं श्रनिवाय है] प्रतिमा-विशञन की मीमासा में एकमात्र कलात्मक अथवा स्थापत्य हीटिकोण श्रधूर्ण दृष्टिकोण हे | अ्रवः प्रत्तिमा-विशन के प्रतिपादन में हम दो प्रधान दृष्टिकोशों या श्रवलग्यत करेंगे--एक धार्मिक दृष्टिकोण ( प्रतिमा-पूजा की परम्पत ) तथा दूसरा स्थापत्य-इष्टिफोण ( प्रतिमा- निर्माण-कला ) |
भारतीय प्रतिमा-विश्ञान की श्राघार-शिला का निर्माण भारतीय पूजा-परम्परा भ्रथवा ध्यान-परग्परा बस्ती है। श्रतएव प्रतिमा-विजञान के शाल्रीय विवेचन के पूर्य प्रतिमा विज्ञान की पृष्ठ भूमि पृजा-परम्परा पर प्रविवेचन आवश्यक है। प्रतिमा-पिशन एवं प्रतिमा-पूजा वा अम्योम्याश्रय सम्बन्ध दे। मले ही ग्रीस आदि पाश्चात्य देशों में इस सम्बन्ध का अ्रपवाद पाया जाता हो जहाँ के कुशल मूर्दि निर्माताओं ने सौन्दय॑ की भावना से बड़ी बड़ी सुन्दर मूर्तियों का निर्माण स्था, परन्तु मारत के लिये तो यद्द मितान्त सत्य रहा है | भारतीय स्थापत्य के विफ़ास के उद्गम वा मद्गाखोत धर्म रह है। श्रतः यहाँ के स्थपतियों ने शमुम्दरम! में दी श्रपनी श्रात्मा नहीं पो दी है। “छन्दरम? के साथ-साथ 'सत्यम! एबं शिवा की दो महाभावनाशरं से श्रमुभाणित इस देश के रथापत्य में घर्माश्रयता ही प्रधान रद्दी है।
भारतीय पास्त-कला एवं प्रस्तर-कला या मृप्ति विर्माए कला के जो प्राचीन स्मारक- निदर्शन हमें प्राप्त होते हैं. उनमें घर्माअरयता प्रमुख द्वी नहीं वद्द सर्वोत्क्पेण विराजमाना इृष्टिगोचर हो रही है | प्राचीन किती भी वास्थ॒-स्मारक वो दम देखें बढ हिन्दू है श्रथवा बोद्ध या जैन--सभी में धर्माश्रयता ही बलवती है। भारतीय वास्तुकला के नव ररशिम प्रभात में अशोफज-फार्ज्ञौन वास्तु-कतियाँ परिंगगित की जाती ईं-उन सभी का एक्मात उद्देश्य मद्दात्मा बुद्ध के पवन धर्म के प्रचार के लिये ही तो था | श्रागे की अगरित कऋतियों एवं भव्पाकृतियों में मी बढ़ी प्रेरणा, बदी साधना, बढ़ी तम्मयता एवं बह्ी उपचेतना, मिसने भूतल पर स्वर्य का निर्माण किया है; मिराकार विश्वमूर्ति को साकार मतिक्वति प्रदान वी है; तथा त्थाग, तपस्या एवं तपोयन की मिवेणी पर अगणशित श्रयागों या निर्माण फ्रिया है। दक्षिण के उत्तुल्ने विमानाकृति विमाम-आ्रासादों एवं उत्तर के श्रश्न|लिद शिवालयों बी पावन गाया मे एतद्रेशीय तथा विदेशीय जितने विदानों ने सितिने ग्रंथ हिसे हैं ! श्रतः भाग्तीय वास्तु- फला (37०ग8९०४ए:७) की इस श्राधारभूत विशेषता से बास्तु-सल्ता पी सहचरी श्रथवा उसका ग्रधन-अलैस्सण अत्तरूकला (56प्रोह्गाधपा७०) श्रद॒पद्चताः अतुपारिव डे ठो
(२० )
खाभाजिक द्वी है। सत्य तो यह दे वास्तु-कल्ग एवं श्रस्तर-कला का विकास अन्योन्यापैत् (8ए7०॥४०709७) हे । प्रामाद (६७ .0) श्रौर प्रतिमा एक दूसरे ऊे पूरक हैं। हिन्दू- प्रसाद के मर्म का उद्घाटन हम अपने * भारतीय-स्थापत्य?--'प्रासाद-बास्त' (७७ फ़ो8 470॥77९०(॥7) में कर चुऊे हैं। श्रागे हसी पूरपीठिका में श्रासाद एवं प्रतिमा के इसी घनिए्ठ सम्बन्ध के मर्मोद्घादन के लिये एक खाधीन अपतरणा की जावेग्री।
अस्तु प्रस्तरकला एवं उसी देदीप्यमान ज्योति-प्रतिमा-निर्माण-कला की इस धार्मिक मावना से यहाँ तात्पयय उपासना से है| उपासना एवं उपासना पद्धति के गर्भ से देवपूजा एवं देव-प्रतिभा निर्माण का जन्म हुआ | आगे हम देसगे कि इस देश में उपासना के कौन फौन सूप प्रिऊसित हुए ! उपासना के कौन कौन से प्रकार प्रशकुटित हुए १ उपासना 3 इतिद्वास पर विहगम दृष्टि से इसके कई एफ सोपानों के हम दर्शन करेंगे। अतः यह प्रकट है कि भारतीय प्रतिमा-विज्ञान को पूर्यरूप से समभने के लिये भारतीय पूजा- परम्परा के रहस्य को हम ठीऊ तरह से समझ लें।
भारतीय पृजा-परम्परा या उपारुना-पद्धति फे विभिन्न सोपानों पर जप्र हम इृष्टिपात करेंगे तो श्रन यास भारतीय घर्म--हिन्दू, जेन एवं बौद्ध--के व्यापक रूप के साथ-साथ हिन्दू धर्म के भीतर बेदिक, स्मार्त एवं पौराणिक प्रतिरूपों के श्रतिरिक्त शव, वैष्णब एवं शाक्त आदि अवान्तर रूपों--सम्प्रदायों, मतो तथा मतान्तरों की भी किसी न किसी प्रकार चर्चा प्र[सद्षिक बन जाती है| प्रतिमा-पूजा में प्रतिमा शब्द का धात्वर्थ तो देख विशेष, व्यक्ति विशेष, अथवा पदार्थ पिशेष वी प्रतिकृति, बिम्य, मूर्ति श्रथवा श्राउति--सभी का बोधक है, परन्तु यहाँ पर प्रतिमा से तात्पर्य भक्ति भावना से भावित देवपरिशेष की मूर्ति श्रथवा देवभ[वना से श्रनुप्राशित पदार्थ-विशेष + प्रतिकृृति से ही है। प्रतिमा पूजा में ध्रतिमा एक प्रकार की कलात्मक-प्रियता की मानवीय भ थना का बह प्रकट मूर्त स्वरूप दे जिसके छारा इस देश फे मानव ने शरद शक्ति की फल्पना एवं उसकी उपासना की अत्यक्ष श्रथवा श्रभ्त्यज्ञ रूप से चेश की है| विभिन्न युगों मे यह चेष्टा एक सी नहीं रही दे | पुरात्न से पुरातन संस्कृतियों एवं जातियों में किसी न किसी प्रकार से इस चेष्टा के दशन दोते हैं| जहाँ तक दस देश का सम्यस्ध हे यहाँ थी पूजा प्रणाली के विभिन्न रूप थे। कोई प्रकृति के पदार्थो-सूर्स, चद्र, आराश, नव्ञत श्रादि की पृजा करते थे। कोई पार्थित जह-जगत् ( छत्त श्रादि ) फी पूजा करते ये | पशुन्यूजा, इक्त-पृजा, यक्ष॑-्पूजा, पत्षि-पृजा, गदी-पूजा, पर्वत ( पापाग्णपद्चिकायें एवं शिलायें आदि )-पूजा श्रादि--ये सभी पूजायें सनातन से इस देश में श्रय भी प्रचलित हैं। इन रूपों में श्राय॑ एवं श्रनाय॑-दोनों प्रकार के घटक की भौंकी देखने का मिलेगी। यदाँ पर इस अयसर पर बौद्धों की ध्यान-परम्पय भी स्मरणीय दै जिसने बौद्ध प्रतिमा पिकास में बढ़ा योग दिया । इस पीठिया ये झागे के चार अध्याय प्रतिमा-पूजा की परम्परा” जन्म एवं विकास--एक ऐतिहासिक विदंगम दृष्टि, »श्षर्चा, अच्य एवं अचेक्?-- विभिन्न धार्मिक सम्पदायों की उपासना-परखरायें, एपं हश्र्चा विधि” तपा "यार-परम्प”--श्खी परम्सरा के विभिन्न पहछुच्चों पर ग्रदाश डालेंगे।
(२१ )
यद्यपि विभिन्न प्राचीन उप्लेफों (दे० श्र २) से प्रतिमा-पूजा का प्राचीनतम सम्बन्ध अद्यवादी वेद-विद् शानी आठशणशों से नहोंकर उस अनों से बताया गया है जो ब्ह्मशाग अथवा झात्मशन के पूरा चिन्तन के लिये असमर्थ थे अथवा ह तथापि एक ऐसा समय झाया जब प्रतिमा-पृजा फे इस संबी्ण एवं एकाइ्टी खरूप श्रथवा इश्कोण के स्थान पर व्यापक एवं सायेजनिक सिद्धात स्थिर हुआ जिसके श्रतुप्तार शानी-श्रश्ञनी, परिडत मूस, योगी भे।गी, राजा रफ तथा ग्रइस््थ एवं मुमुक्तु - भारत फे विशाल समाज ये' प्रत्येक वर्ग के लिये उपाधना एक श्रनिवाय श्रग वन गया | शैकराचाय से बढ़कर फौन ब्रद्मगानी हुआ ! शंकर की भगवद्धक्ति के उपासना-उद्ग।र मक्को फे आज मो वरण्ठहार हैं। श्ञतः निर्विवाद है देव-भावना--देबोपासना एवं पूजा-परम्भरा का अन्योम्याभ्रय संयन्ध तो है ही फान्य एवं संगीत की भौति स्थापत्य पर भी इनका बम प्रभाव नहीं पड़ा । भक्ति के उल्लास में संगीताचायों ने जहाँ खरतहरी की साधना मे तल्लीनता दिस्ताई यविपुड्वों ने जहाँ बबिता की पुष्पाक्षलि चढ़ाई वहाँ स्थप्तियों ने वह तन््मयता दिलाई जिसके जौते जागते चित्र प्राचीन मारतीय स्थापत्य के बहुमुपी निदर्शनो में हम देस सकते हैं।
श्रतः प्रतिमा-विशञन वी पृष्ठ भूमि बी थ्राधारशिला-- पूजा परम्पण के उपोद्धांत में जो पह्म संकेत ऊपर किया गया दे उम्र रुपन्न्ध में यह नितास्त रुत्य ही है कि इस देश में उपासना-पद्धति का जो विपुल विकास बता गया उसका आामुपद्धिक प्रभाव स्थापत्य पर भी पढ़ता गया ।
प्राचीन वैदिक वर्मजाएड-- यश्वेदी, यजमान, पुरोहित, बलि, हृष्ये, हृपन एव देवता आदि के बृदत् विजम्भण से हम परिचित ही हैं। उसी प्रभार देव पूजा मे श्रर्चा, अन्य एवं अर्चक के नाना सँमार, प्रकार एवं कोटियाँ पल्नवित हुईं | श्रर्चा के सामान्य पोडशोपचार एवं विशिष्ट चदुष्पष्टि उपचार, श्रच्य देवों के विभिन्न वर्ग--शिव, विष्णु, देवी, गणेश सूर्य, नवग्रह झ्रादि तथा अर्चक्ो की विभिन्न श्रेणियाँ--इन सभी की समीक्षा से हम प्रतिमा विज्ञान की इस प्रष्ठ भूमिका की गहराई का मापन कर सर्येंगे। साथ ही साथ पृजान्यरम्परा के इस सर्वतोमुत्ती विकास का स्थापत्य पर जो प्रमाव पडा उसकी मीमासा में इम आगे एक खाधीन श्रध्याय में इस विषय की कुछ विशेष चर्चा करेंगे।
हम जानते दी हैं कि मानव मे अपने आराध्य देव में अपनी ही भॉकी देखी । मानव का देव मानवीय विभिन्न परिमा्णों एवं रूपो, चल्रो एवं श्राभूषणों में अंक्ति हुआ । श्रत: भारतीय स्थापत्य जहाँ विभिन्न जानपदीय सस्कार, उपचेतनाश्रों, रीति-रिवाजों फे साथ-साथ भौगोलिक एव राजनैतिक प्रभावों से श्रनुप्रादित रहा वहाँ वह घार्मिक भावना की महास्योति से प्रयोतित उपासना परभ्पस के बहुमुसी विजृम्मण से मो फ़म प्रभाषित नहीं हुआ । विभिन्न श्रात्त एवं अर्थप्रात प्रतिमा-स्मास्क निदर्शन इस तथ्य के ज्यतस्त उदाहरण हैं|
भारतीय प्रतिमा विशन को टीऊ तरह से ममभने के लिये न फेवल भारतीय धर्म का ही मिद्ायलोकन आवश्यक है वरन् भारतीय पुराण शात्र (शए४+0००४5) का भी सम्यकू शान आवश्यक है| श्वागे हम देखेंगे विभिन्न देवों के नाना रूपों की
(२३ )
उद्धायना पुराणों ने ही प्रदान वी है | पुराणों के ग्रवतारवाद एवं बहुदेव बाद का स्थापंत्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा हे। देव-विशेष के पीशणिक्र नाना रूप स्थापत्य के नाना मूर्तियों के जन्म देने में सद्ायक हुए। सत्य तो यह है कि प्रतिमा-विज्ञान स्वयं एक प्रयोजन ने होकर प्रयोज्य मात्र है । प्रयोज्नन तो प्रतिमा पृजा है । भारतवर्ष के सास्कृतिक एवं धार्मिक प्रगति में प्रतिमा-पूजा फा एक महत्व पूर्ण स्थान दै। प्रतिमा-पूजा ने ही निगु ण॒ एवं निरामार ब्रह्म के चिम्तक अद्वेतवादियों एवं सगुण तथा साकार ब्रह्म के उद्धायऊ भत्तों दोनो के दृष्टिकोण में समन्वयात्मक सामंजस्य प्रदान जया है । इस प्रकार प्रत्तिमा-विज्ञान दी पूर्व-पीठिका “पूजा-परम्परा? के साहक्ृतिक दश्टिज्रोण के अनुरूप प्रायः समी पिवैच्य विपयों के इस उपोद्धात के अनन्तर पूजा-परम्परा के शास्त्रीय दृष्टि-फोण के सम्पन्ध मे यहाँ पर थोडा सा निर्देश करना आवश्यक है। भारत की समी धार्मिक, दार्शनिक एवं सास्कृतिक परम्पराश्रों का जन्म बैदिक वाड मय से हुआ यह हम जानते ही हैं। देव-पूजा दृवन्य॒ज्ञ मे प्रस्कुद्ति हुई। देव-यज्ञ की परम्परा बहुत प्राचीन है। देव-यश्ञ का शास्त्रीय विवेचन ब्रह्मण-पन्थों एवं यूत्र ग्रन्थों ( “कल्प! वेदाज्न- पदक वा प्रमुस अज्ञ ) में बढ़ा विस्तार हे। देव-पूजा का आचीनतम पिवेचन स्णृत्तियों में प्राप्त होता है| स्मृति साहित्य एवं समा परम्परायें वेदिक एवं पौराणिक परम्पर/श्रो के बीच की लड़ियो फे रूप में परिकल्पित करना चाहिये। “श्रुति? के अनन्तर स्मृति! का नम्बर आता है बाद में 'पुराण! का पुनः आगम तदनन्तर इतिहास | श्रतः निर्विवाद है कि देव- पूजा देव यज्ञ की परम्परा से ही पल्लवित हुई है | मूल वही शाखाओं में भेद है। देव-पूजा के स्मार्त, पौराणिक एवं श्रागमिक शास्त्रीय सन््दर्भों को प्राचीन कालीन भामा जाना चाहिये। मध्य-काल मे तो “देव पृजा? पर स्वतनत्र रूप से विशिष्ट प्रस्थों की रचना हुई जिनमे “रुम्ृति चिन्तामणि? '“स्मृति-मुक्ताफ्लों एवं धृजा-प्रकराश” विशेष डल्ततेसनीय हैं | अन्त में यह सूचित करना भी इस स्थल पर उपयुक्त ही होगा कि इस विपय-अपेश में प्रतिमा विज्ञान के शास्तीय-विवेचन फे उपोद्घात का ज़िश्विम्मात मो संकेत न देसकर पाठक को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये । यह विपय उत्तर-पीठिका। का है जिससे विपय-प्रवेश मे प्रतिमा-विज्ञन से सम्बन्धित समी विपयो की अ्वतारणा का प्रयत्व किया जावेगा |
हु
पूजा-परमरूपरा [ सास्कृतिक दृष्टिकोश के आधार पर ]
मारतीय अतिमा विशञान की आधार शिला पूजा परम्परा तथा उसके श्राघार रतम्म ध्यान-परम्पता मानने चाहिये | इस श्रध्याय में पृजा-परम्परा वी प्राचीनता पर सास्कृतिक दृष्टि से एक फिहंग्रम हस्टि डालमी है। आगे म इस परम्परा पर दो पृथरू अध्यायों पा सूजपात करेंगे जिनमे ऐतिद्वासिक दृष्टि से पिवेचना होगी |
निपन््तन से आनव ने अ्रद्ृष्ट शक्ति के प्रति मीति भावना अथवा मक्ति-भावना किया आहमक्षमपण की भावना से हिसी न किसी प्रकार से किसो न कसी पदाथथ को उस श्रद्दाद शक्ति की प्रतिकृति भ्रथवा उसका प्रतिनिधि मानरर अपने प्रभु के प्रति भाव पुष्प चढ़ाये हैं।
सी भावना को इम पृजा के नाम से पुकार सकते हैं| पूजा शब्द का यह श्रत्यन्व स्थूल
ऐतिहासिक एव ब्यापक श्र है | ग्रन्यथा शाध्तीय इृष्ठि से पूजा शब्द का अथ इस श्रथ से पिलक्षण ही नहीं विशिष्ट मी है |
जित्त प्रकार से देवयश श्रथवा याग की सम्पन्नता ब्य, देवता एवं त्याग की भिविधा प्रक्रिया पर श्राश्नित है। एक द्रव्य विशेष--द्धि, दुग्ध, श्राज्य, धान्य श्रादि को मस्नोचारण सहित जय झिसी देव-विशेष के प्रति त््याग--उत्स्म (श्राहुति) करते हैं उसी प्रकार पूजा भी एफ प्रकार से याम दी है जिमम भी एक देवविशेष के प्रति किसी द्वब्य विशेष-पृष्प, एल,
न्दन, श्रत्गवत, वस्त्र श्रादि का समपेण अभिप्रेत हैं। “बूजा प्रकाश? के प्रथम पृष्ठ म ही पूजा के इसी श्रिषेयाथे पर प्रकाश डाला गया है *-- #तन पूजा नाम देवतोद्देशेन दब्यत्यागात्मकत्वाद्राग एव!
पूजा शब्द का यह अर्थ पूजा परम्परा के श्रति विकसित स्वरूप का परिचायक है। परन्तु श्रभी हमें पूजा परम्परा के श्रन्धकाराइत गिरिगहरों, भयावह प्रकारड पादपों, उन्हुज्ल शैज्ञ शिस॒रा, उद्दामप्रवादिय सरिताओं एवं भीपण वान््तारों के साथ साथ त्तीरसाविणी कामपेनुआ, गगनबिदहारी णगेशा (गरुड आदि) आदि के भौलिक खोतों को देंपना है जिनके द्वारा उपासन/-गगा की विशाल पावन घारा में इम अवगाइन पर सके |
पूछा परमारा की ऐतिद्वासिक समीक्षा में सर्वप्रथम श्रनाय/स हम वेदिय-युग तथा मिन्बु-घादी सम्यदा के उस सुदूर भूत में अपनी दृष्टि डालते हैं--.प्राय इस विपय की मीमासा म विद्वानों ने यही प्रणाली बस्ती है | इस पद्धति मे न तो इृढ़ निष्षप॑ निकल पाये हैँ और न समीक्षा मे पूर्ण सतोप द्वी आप्त दो सका है। अत हमे मानदीप संस्कृति पे ध्यापक आधारभूत सिंान्तो वो अपनाना दे जिनसे इस विपय की समीक्षा में कुछ विशेष सम्तोष फ्ाहोसके]
२
पूजा-परम्परा [ सांस्कृतिक दृष्टिकोश के आधार पर ]
भारतोग प्रतिमा-विज्ञन वी श्राधार-शिला पूजा परम्परा तथा उसके श्राधार रतम्म ध्यान-परम्पग मानने चाहिये | इस श्रध्याय में पूजा-परम्परा की प्राचीनता पर सास्कृतिक दृष्टि से एक बिहँगम दृष्टि डालनी है) आगे दम इत्त परम्पए पर दो पृथर अ्रध्यायों का सूतरगात करेंगे जिनमे ऐतिहासिक दृष्टि से पियेचना दोगी |
निरन्तन से मानव ने अद्दष्ट शक्ति के प्रति मीति मायना श्रथया मक्ति-माषना क्या आत्मत्मर्पण की मायना से र्तमी न किसी प्रकार से किसी न कसी पदार्थ को उस श्रदृष्ट शक्ति वी प्रतिकृति अथवा उसका प्रतिनिधि मानरर अपने प्रभु के प्रति भाव-पुष्ष चढ़ाये हैं| इसी मावना को इस पूजा के नाम से पुकार सऊते हैं। पूजा शब्द का यह अत्यन्त स्थूल ऐतिद्वासिक एवं व्यापक अर्थ है | अन्यथा शाह्त्रीय दृष्टि हे पूजा शब्द का अ्र्थ इस शर्थ से पिलक्षण ही नहीं विशिष्ट भी है
जिस प्रयार से देवयश झथवा याग कौ सम्पन्नता द्रव्य, देवता एवं त्याग की त्रिविधा प्रक्रिया पर आाशित है| एक द्रष्य विशेष--दधि, दुग्ध, आज्य, धान्य श्रादि को मन्नोचारण सहित जब सिमी देव-विशेष के प्रति त्याग--उत्सग (थ्राहुति) करते हैं उगी प्रकार पूजा भी एक प्रकार से याग ही हे जितमे भी एक देवबिशेष फे प्रति किसी द्रब्य विशेष--पुष्प, पल, चन्दन, श्रतत, बस्त आदि का समपेण अ्रमिग्रेत हैं । थूजा प्रकाश! के प्रथम प्रृष्ठ में दी पूजा के इसी श्रमिवेयाय॑ पर प्रकाश डाला गया है :--
#ततर पूजा नाम देवतोहरेम द्रष्यायागात्मक्त्वाद्ाग एव”
पूजा शब्द का यह अ्र्य पूजा-परम्परा के श्रति विकृित स्थरूप का परिचायक है। परस्थु श्रमी इमें पूज-परम्परा के अ्न्पकायइत गिरिगहरों, मयातह प्रकारंड पादपों, उस्दृक्त शैल-शिससे, उद्ामश्वादिणी सरिताशों एव्॑ भीपण कान्तारों के साथ साथ क्ौरताविणी कामवेतुओ, गगनबिद्दरी छगेशों (गरंड आदि) श्रादि के मौलिक सोतों को देखना हे जिनके द्वारा उपासनानांगा की विशाल पावन धार में इम्र अवगाइन कर सकें।
पूडापफ रा थी ऐतिह[मिक समोक्षा में सर्वप्रथम श्रनायास हम बैदिक-युग तथा फिखु-पाटी सभ्यता के उस सुदूर मृत में अपनी दृष्टि डालते हं--आयः इस विषय की भौमामा में दिद्वानों गे यहां प्रणाली बस्ती दे | इस पद्धति में न तो इृढ निष्मप॑ निदल पाये हूं और न सर्माक्षा में पूर्ण सग्तोप ही प्राप्त ह्ो सका है। श्रतः हमे गानदी7 मंरक्द्रि फे इपापक आाधारयूप सिद्धास्तों वे। श्पनाना है जिनसे इस विषय की सर्मक्षा में कुछ रिशेष गस्तोप पतहोंसये।
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सृष्टि की विविधता एवं विमिन्नता ही ने उसकी एकता का निर्माण क्या दे। किसी मो युग में समानश्रेणीक मनुष्यों की कल्पना स॒प्टि पे मियमों थी अजत' ही होगी । पुनश्च आ्राधुनिक काल विभाजन की जो रोली इतिहासफारों ने अपनायी है--श्रस्भ्य युग, अधंसम्य युग, सग्य सुग-- पापाण काल, लौह-पाल ताम्रकाल शादि-वह मी जया सर्यथा निर्दोष है ! विकासव।दी योरोपीय प्रिद्यान् भले दी इस ऐतिदासिक परम्परा पर प्रश्य रख्वें परन्तु हाठवादी भारतीय विचारका को इसमे सन्तोप नहां मिल सत्ता ) प्राचीन हिन्दुओं की सत्य युग, नेता, द्वाउर एवं कलि-युग--इस चतुर्मयी बाल-विभाजन प्रण्शाली में दासवाद का दी प्रचएड रूप प्रह्त द्वोता है। अरत- भारतीय विज्ञान की विभिन्न जीवन-पासाश्रों फे उद्गम में विरासवाद श्रथवा हासवाद के मापदरइ से समीक्षा उतनी मुरुद है बह समी के समझ में झा सफ़ती है ) श्रत, मुत्रिधा की दृष्टि मे हस चक्कर में न पढ़कर एक मध्यम मार्ग की खोज ही विशेष उपादेय है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण पर विशेष शास्था न रपक्र यदि इम साहटतिक दृष्टिकोण को झपनायें तो इसकी मोमासा में हमे थोड़ी सी मदद मिल सफ्ती है।
यह प्रथम ही संकेत किया जा चुका है झ्ि मारतीय समाज अ्थया किसी समाज से सभी लोग एक ही विचार-धारा, एफ द्टी बुद्धि-स्तर अथवा एक ही मर्यादा के नहीं। विभिन्न भेणीर मनुष्यों से ही समाज सम्पन्न होता है| अतः जद्दा वैदिक युग में उच्चस्तर के पिद्दान् मेधावी कवि ( उन्हे ऋषि किये श्रथवा ब्राह्मण कटिये ) लोगों ने श्रपनी उपासना की तृप्ति म काल्पनिक देवों की अवतारणा करके उनके प्रति भक्ति के उद्गार निकाले, उनको सन्तुष्ठ करने के लिये यश का विधान बनाया; बहोँ जो निम्नभ्रेणी के पुरुष थे, भले ही वे अनार्य ही अथवा द्वाविड हों, गागेय घाटी से सम्यन्धित हो अथवा सिन््धु घाटी से, दिमाद्वि की उपत्यकओं ने श्राच्छन्न उच्तरापय के निवासी हों अथया विल्याद्वि से शाच्छक्ष दक्षियापथ के, उनती भो अ्रपनों कोई न कोई पूजा-प्रणाली--उपासना पद्धति अयश्य हागी | वास्तव में चेदिक काल में जो उपासना पद्धति बैदिक यागों के रूप मे उल्लिखित मिलती है उसमे जनता-तनादन की परम्परा वा सर्वंधा अभाव था |
चिस्ततन से मामव अदृष्ठ शक्ति का सहारा लिये ब्रिना अपने कसी भी मानवीय ब्यापार में अग्रसर नहीं हुआ | प्रकृति के भयावद्द एवं विभुग्धकारी दृश्यों ने जगन्रियन्ता तथा ब्रशति के इन पदायों जे श्रति सहच कौनूलल ही नहीं उन्पन्न किया भक्ति के भाव, विनश्नतः के उद्गार एप श्रात्मसभर्परएए की अमिलापा किया तह्लीनता एव तन््मयता की श्रजल्ल घारा मानव के हृदय मे स्वत्त सम्भूता हुई अन्यथा मानव पशुता से न उठता | मानव का परम एवं पुनीत परमोस्करप तथा परम पुरुषाथे तो देवत्व की प्राप्ति ही हे। युग-धर्म, देश विशेष की जलवायु एव विशेपताओं के वश, मानव ने इस दिशा में विभित्र रूप से कदम बढ़ाये | कालान्तर म सभी मंस्कृतिया ने देवभायना एव॑ँ देपे पसमा को ज मे दिया । मानव सम्यता वा चह स्वर्ण युग था । सम्यर् संकल्प के बाद ही सम्परू प्रथल वा अवसर आता है | शुभ संक्त्प ही मानव को उन्नतपथ की श्रोर ले जाते हैं | देव मायना से देवोपासना का युग इस हृष्दि से अधिस सम्य तथा समृद्ध मानना चाहिये |
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भारतीय संल््क्ति में तथा उसकी सभ्यका वी कहानी से सानय ने अ्रनादिकाल से द्वी देयभावना या देवोपासमां वी तो बात ही क्या 'देवभूवता! का भी अनुभव किया। यही कारण है कि इस देश को सम्पता एप संस्ट्रति वे इन उदात्त एप अत्यन्त प्रशस्त सिद्धास्तों को प्रथम जन्म देने का गौरय मित्रा ) देयों की कीड़ा भूमि भी इसी देश को होने की गरिशा मिली और महिम( मिली पुराणयुब्प रे पुनीत चरणों से पावित हाने तो आर यार | इस उपाद्धात मे यह निएक्र्प निझुलता है कि इस देश ये सुदूर अ्तीत-- वैदिक घुग अथवा वैदिकपृव॑-युग---सिन्धु सम्यता युग रे जो पूजा परम्यश श्थवा उपासना- पद्धति प्रचलित थी और जिसके थोडे मे साहित्यिक एपं कलात्मक प्रमाण प्राप्त होते हैं उनमे इम उस पद्धति के सावेजनीन मभ्वरूप को स्थिर नहीं कर सकते हैं। श्वागे इस विपय वी विशद समीक्षा में देसेंगे कि थैदित साहित्य मे प्राप्त नाना निर्देशों से भी हम इसी निर्णय की थिद्धान्त पक्तु पे रूपम ले सकते हैँ फ्रि उस समय फ्री देवोपासना की याग पद्धति सार्जनीन पद्धति नहीं थी ।
मानव सभ्यता वी कद्धामी मानव पे रहन सहन, भोजन-मणशन, श्राच्छादन एवं चिन्तन की कद्ानी है। मनुष्य विचास्वान् प्राणी है श्रत समातन से बह श्रपने यष्टा पे सम्बन्ध में, भ्पगे तरक्कों एवं उपकारकों के सम्पेस्ध में से।चत श्ाया है। 'समरा्रण-यूतघार! ते राहदेवाधिकार नामक एय अध्याय का यही मर्म दे कि मानव यदि बह मानव ( पश्च नहीं ) है तो कभी नहीं भूत सका कि एज रुमय था जय बह देवों का सददचर था।
देवों से मानवों ये उस श्रतीत परायवय ने सानवों यो पुन. देवमिलन ये लिये मद॒ती उत्तण्ठा प्रदान बी है । चिस्तग से इसी उच्रश्ठा से मानय से अपने प्रत्येक व्यापार मे देग-मिलन फी चेश की विभिन्न साययाश्रा एवं साधनों व् द्वारा यद प्रयत्म स्या फि यह कमे देवा वा सामीष्य प्राप्त कर सरे । इस देश के जो विभिन्न दार्शनिक एय धार्मिक सिद्धात एवं विश्वास अकल्वित हुए उनमें सभो मे सासय यी इसी चेष्ट फ दर्शन द्वात है। वैदिक पर्म काणह, उपनिपदों ये श्रात्मशान! प्रलशान! प्तत् त्वममि! ध्यद्रमस्मिं श्रादि श्रगेष धार्मिक एवं दाशनिक सिद्धास्त, इसे तथ्य के प्रय प्रमाण हैं। श्रव विर्विदाद है कि मजुष्य श्पनी श्रात्मा (जो परमात्मा या दी छपु रवरूप है ) मे अपने सइचर दुय है वार यार्यरर के होते हुए भी साय श्यका शो स्सी राइय जरदों कर यरा । देकों रे सानयों के मानस मिलय की इसी बद्धानी या नाग देंगे ये एयं देत पृश्त है। यह सदा विद्यमान रही । श्रत देर पूणा की परम्परा फो मानव समस्पठा ए | संस्शधि से एव सा विलिक एवं सा्रेह्तीग संस्य के रूप मे एम परिरल्पित वर सकते है |
मनुष्य झपती तिमिस्त घार्मिक उपचेब्त्रा तप्य फर्म बणए ये दारा देयों पे प्रोध गो शान्त वरने मे हग्प है। सनातन से मउपष्य चैयतिक एप ? झातिए दोपों रूपी मद प्ररशा में ऐपेस है | हपणर मत य से श्राया दस्स पुरपार्थ माउ अपर मस्त श्रथया देवभूपरा बना रापा दे। सगार पे सभी भ्मों ने और यदे बडे धर्माचायों मे सदेय पही शिक्शया हि इस आपने जयंत में देर दर्शन की स्पोति यो सरैय रगसयाते रहें ।
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यह प्रथम ही सेकेत किया जा लुफा है कि सभी मनुष्यों वा बुद्धि-स्तर एवं छुदय की सम्बेदना एक समान नहीं हो सकती | सानव समाज वो विभिन्न वर्गों में विभाजित करने की प्राचीन परम्परा या यही मर्म था। अ्रतः जहा विद्वान् मेधावी ब्राह्मणों के लिये आत्मजशान ओर ब्रक्मशन के सिद्धान्त सुकर हो सकते थे वहाँ श्रज। एवं निम्न भेणी के मनुष्यों के लिये न तो ऐसे दुरूद एवं जटिल मिद्धात बोधगम्य ही ये और न उपरारक | श्रतः उनकी उपासना के लिये, उनयी आत्मतृष्ति के लिये, उनवी देव भावना मी प्रेरणा के शमम के लिये कोई न कोई आचार, कोई न बोई पद्धति होनी ही चाहिये। शतएव मनीपी समाज- शादियों एवं घरं-गुरओ ने समाज के इस प्रदल अंग के हढिये देवोपासना को प्रद्ो- पासना के रूप में रिथिर स्थया | प्रतिमा पूज एक प्रकार से प्रतीगोपास्गा टी तो है । भारतीय ईश्वरोपासना अथवा देवोपासना-पद्धति में प्रतिमा-पूजा का एक प्रकार से गहित स्थान है | भारतीय घर्म (भ्यतोःम्युदयनिःश्रेयससिद्धि: स धर्म;?--गतः धर्म का परम लद्य निःश्रेवल अर्थात् मोक्ष है ) के दृष्टितोण से सानव का परम पुरुपार्भ मीज्ञाधिगम है | यह मोक्षाधिगम अ्रथवा मुक्ति-प्राप्ति प्रतिभा-पृजा से प्राप्त नहीं होती;-- ०पापाणक्रौदमणिसन्मयविग्रहेपु पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्तो, | तस्मायतिसस्वहदय,चंनमेव. कुर्याद वाद्याचंम परिहरेदपुनभंचाय ॥ अर्थात् मुमुक्तु या मोक्ष के अमिलापी यति के लिये पापाण, लौह, मणि, मत्तिका आदि द्रव्यों से विनिर्मित प्रतिमाशों की पूजा वर्जित दै। बह पुनर्जन्मकारक है। श्तः यति को देवाचन अपने ृदय में ही बरना चाहिये। वाह्यचंन उसके लिये बप्य हे। उससे पुनर्भय-दोष आपत्तित होता है | प(ठु सभी तो यती है नहीं, रुभी मुमुक्त कद्दा से हो सफ़्ते ! श्रशों के लिये--निम्न बुद्धि स्तर बालों के लिये नोई परग्पण आवश्यक है | वरतणव ४शिशव्रम स्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिन-। अज्ञानां भावनारथाय प्रतिमा: परिकत्पिता: ॥?? अर्थात् योगी लोग तो शिव वो अपनी आत्मा मे ही साह्ालार करते हैं नकि प्रतिमाओं में | अतः श्रजों के लिये देवभावना के सम्पादनार्थ प्रतिमाओशों का १रिकल्पन किया गया है | भारतीय श्रार्य-विचारकों के ये उद्गार एवं धर्म म्बचन यद्यपि अपेक्षापत सध्य- काली ही हू परन्तु इनमें प्रतिमा-पूजा अ्रथय्रा प्रतीकोपासना की श्रति पारतन परम्परा पर आपश्य एमन्वपात्मक दृष्टिकोण का पूर्ण आभास प्राप्त होता है । आतः निष्कर्पःरूप में यढ कहना सर्वधा संगत ही होगा फ्रि प्रतीकोपासना ( जिसके गर्भ से प्रतिम'यूजा रा जन्म हुआ ) उतनी दी ग्राचीन हे जितनी मानव सम्यता | सह मानयहा की संबे4 रूदनरी रही है। पिमा दसके मानवता एम क्षण में उसे भी उन्छयाम न ले सकी | ग्रतः पिद् ना के तफ-पितरे, वाद-विवाद, श्रालोचमा प्रत्यालोचना एवं गपेपशात्मक ऐतिहासिक अनुसन्वान मले ही शास्त्रीय दष्डि (8 080७णां6 70076 | ए३०४७ ) से ठीक द्वों परन्यु ब्यापक्त सास्ट्ृतिक दष्टि-कोश ( जो इस ग्रन्थ का स॑न-बीज है ) ने यइ मानना अनुचित न होगा कि उपासना की यह परग्पसा वैदिक युग अथवा
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पैदिक युग से मी प्राचीनतर युग (उसे सिंघु-सम्यता ऊृदिये ग्रथवा साथ सभ्यता कदिये अ्यवा पापाण-फालीन या उत्तर-पापाण कालीन श्रथय्रा ताम्र युगीन सम्यता कद्िये) मे विद्यमान थी | आगे प्रतिमा-पूजा की ऐतिहासिक